क़बा-ए-गर्द हूँ आता है ये ख़याल मुझे चले हवा तो कहूँ किस से मैं सँभाल मुझे सुकूत-ए-मर्ग के गुम्बद में इक सदा बन के कभी हिसार-ए-ग़म-ए-ज़ीस्त से निकाल मुझे कोई भी राह का पत्थर नज़र नहीं आता मैं देखता हूँ उसे हैरत-ए-सवाल मुझे मिरे वजूद में इक कर्ब बन के बिखरा है ये मेरा दिल कि हुआ बाइस-ए-वबाल मुझे हूँ ज़ेर-ए-संग रवाँ आब की तरह 'हामिद' नुमूद देगा मिरी फ़िक्र का उबाल मुझे