कभी बे-नियाज़-ए-मख़्ज़न कभी दुश्मन-ए-किनारा कहीं तुझ को ले न डूबे तिरी ज़िंदगी का धारा मिरी क़ुव्वत-ए-नज़र का कई रुख़ से इम्तिहाँ है कभी उज़्र-ए-लन-तरानी कभी दावत-ए-नज़ारा ग़म-ए-इश्क़ ही ने काटी ग़म-ए-इश्क़ की मुसीबत इसी मौज ने डुबोया इसी मौज ने उभारा तिरे ग़म की पर्दा-पोशी जो इसी की मुक़तज़ी है तो क़सम है तेरे ग़म की मुझे हर ख़ुशी गवारा दम-ए-सुब्ह-ए-नौ-बहाराँ जो कली चमन में चटकी तो गुमाँ हुआ कि जैसे मुझे आप ने पुकारा मिरे नाख़ुदा न घबरा ये नज़र है अपनी अपनी तिरे सामने है तूफ़ाँ मिरे सामने किनारा मिरी कश्ती-ए-तमन्ना कभी ख़ुश्कियों में डूबी कभी बहर-ए-ग़म का तिनका मुझे दे गया सहारा तिरा हक़ भी सर ब-ज़ानू मिरा कुफ़्र भी पशीमाँ मुझे आगही ने लूटा तुझे ग़फ़लतों ने मारा ये करम ये मेहरबानी तिरी फ़ारूक़-ए-हज़ीं पर ये गिला है क्यूँ न बख़्शा मुझे शुक्रिये का यारा