कभी चराग़ कभी रास्ता बदल कर देख बहुत क़रीब है मंज़िल ज़रा सा चल कर देख तिरे हिसार से बाहर नहीं ज़मान-ओ-मकाँ तू मेरी तरह किसी आइने में ढल कर देख फ़क़ीर बन के वो आया है तेरी चौखट पर ये कोई और नहीं है ज़रा सँभल कर देख निगार-ख़ाना-ए-गर्दूं को राख करते हुए ज़रा सी देर किसी ताक़चे में जल कर देख ज़मीन तंग हुई जा रही है लोगों पर हुदूद-ए-क़र्या-ए-जाँ से कभी निकल कर देख रवाँ-दवाँ हैं किसी सम्त में कि साकित हैं फिर एक बार सितारों की आँख मल कर देख अजीब लुत्फ़ है तर्क-ए-नशात में 'साजिद' जो हो सके तो मिरी बात पर अमल कर देख