कभी दीवार लरज़ती है तो दर चीख़ता है जाने क्या बात है दिन-रात ये घर चीख़ता है सारे माहौल पे तारी है कसाफ़त ऐसी साँस लेते हुए घबरा के शजर चीख़ता है ख़ामुशी हौसला ज़ालिम का बढ़ा देती है और ख़ता-कार है मज़लूम अगर चीख़ता है रूह में डंक चुभोती है सितम-पेशा हयात एक ख़ामोश फ़ुग़ाँ है कि बशर चीख़ता है कितना बे-ख़ौफ़ था वो ग़ार की तारीकी में आज हाथों में लिए शम्स-ओ-क़मर चीख़ता है कभी तारीख़ उछलती है कटे हाथ के साथ कभी नेज़े पे उछाला हुआ सर चीख़ता है पेश करता है छुपा कर ग़म-ए-पिन्हाँ लेकिन उस की तहरीर का हर ज़ेर-ओ-ज़बर चीख़ता है सख़्त बीमार सही 'ताज' अभी ज़िंदा है इक मुसव्विर का मगर ख़ून-ए-जिगर चीख़ता है