कभी गेसू न बिगड़े क़ातिल के नाज़-बरदार हैं मिरे दिल के मुझ को अग़्यार से भी उल्फ़त है कि ये कुश्ते हैं मेरे क़ातिल के उठे जाते हैं बज़्म-ए-आलम से आने वाले तुम्हारी महफ़िल के उन के दर तक पहुँच के मरता हूँ डूबता हूँ क़रीब साहिल के दाग़-ए-दिल घुट रहे हैं पीरी में बुझ रहे हैं चराग़ महफ़िल के है मुसाफ़िर-नवाज़ तेग़ तिरी मुझ को रुख़्सत किया गले मिल के ऐ 'रशीद' 'उन्स' तक थे हम शाइ'र हो गए ख़ाक हौसले दिल के