कभी गुल के कभी गुलज़ार के बोसे जबीं के चश्म के रुख़्सार के बोसे लहू की सुर्ख़ियों में पय-ब-पय हमदम महकते हैं तिरी दीवार के बोसे लहू की सर-कशी मेरा मुक़द्दर है मुझे मर्ग़ूब हैं तलवार के बोसे फ़लक तकता रहा हैरत से उस का मुँह ज़मीं लेती रही रफ़्तार के बोसे हवा में सर-ब-सर ए'जाज़ है कोई ख़ला में सब्त हैं असरार के बोसे