कभी जब्र-ओ-सितम के रू-ब-रू सर ख़म नहीं होता मिरा जज़्ब-ए-सदाक़त ग़ैर-मुस्तहकम नहीं होता सरों की फ़स्ल कटने का ये मौसम तो नहीं लेकिन सरों की फ़स्ल कटने का कोई मौसम नहीं होता जिन्हें आता हो फ़न औरों के ग़म अपनाए जाने का उन्हें ता-ज़िंदगी दुनिया में कोई ग़म नहीं होता हमारे दौर में अब नफ़सा-नफ़सी का ये आलम है जनाज़े रोज़ उठते हैं मगर मातम नहीं होता ज़बाँ के ताज़ियाने से कलेजे पर जो लगता है वो ऐसा ज़ख़्म है जिस का कोई मरहम नहीं होता मिली अस्लाफ़ से 'जावेद' मुझ को सिद्क़ की दौलत सुलूक-ए-नारवा से भी ये जज़्बा कम नहीं होता