कभी ज़ख़्मी करूँ पाँव कभी सर फोड़ कर देखूँ मैं अपना रुख़ किसी जंगल की जानिब मोड़ कर देखूँ समाधी ही लगा लूँ अब कहीं वीरान क़ब्रों पर ये दुनिया तर्क कर दूँ और सब कुछ छोड़ कर देखूँ मुझे घेरे में ले रक्खा है अशिया ओ मज़ाहिर ने कभी मौक़ा मिले तो इस कड़े को तोड़ कर देखूँ उड़ा दूँ सब्ज़ पत्तों में छुपी ख़्वाहिश की सब चिड़ियाँ कभी दिल के शजर को ज़ोर से झिंझोड़ कर देखूँ अदम-ए-तकमील के दुख से बचा लूँ अपनी सोचों को जहाँ से सिलसिला टूटे वहीं से जोड़ कर देखूँ