कभी ज़मीन कभी आसमाँ से गुज़री है मिरी हयात बड़े इम्तिहाँ से गुज़री है ख़ुशी की धूप मयस्सर न हो सकी मुझ को ग़मों की आँधी मिरी दास्ताँ से गुज़री है बताऊँ क्या मैं तुम्हें ज़िंदगी के बारे में मिरी हर एक शब अश्क-ए-रवाँ से गुज़री है किसी के हिज्र में बर्बाद दास्तान-ए-हयात ग़ज़ल की शक्ल में सारे जहाँ से गुज़री है तुम्हारे हिज्र में आँखें रही हैं नम हर पल मिरी ज़बान भी आह-ओ-फ़ुग़ाँ से गुज़री है धड़कने लग गया तेज़ी से दिल कभी जब भी तुम्हारी याद दिल-ए-आशियाँ से गुज़री है हर एक सम्त से आती है प्यार की ख़ुशबू ज़बान 'मीर' की शायद यहाँ से गुज़री है हर एक फूल को मुरझा गई ‘अली-अफ़ज़ल' न जाने कैसी हवा गुलिस्ताँ से गुज़री है नबी के दीन की अज़्मत के वास्ते 'अफ़ज़ल' तमाम नस्ल-ए-अली इम्तिहाँ से गुज़री है