कभी जो आँखों में पल-भर को ख़्वाब जागते हैं तो फिर महीनों मुसलसल अज़ाब जागते हैं किसी के लम्स की तासीर है कि बरसों बा'द मिरी किताबों में अब भी गुलाब जागते हैं बुराई कुछ तो यक़ीनन है बे-हिजाबी में मगर वो फ़ित्ने जो ज़ेर-ए-नक़ाब जागते हैं सितम-शिआ'रों हमारा तुम इम्तिहान न लो हमारे सब्र से सद इंक़लाब जागते हैं हमें ख़ुद अपनी समाअ'त पे शरम आती है कि मिम्बरों से अब ऐसे ख़िताब जागते हैं ये नींद लेती है 'अख़लाक़' वो ख़िराज कि बस जो ख़ूब सोते हैं हो कर ख़राब जागते हैं