कभी जो धूप हमारे मकाँ में आ जाए तो साया-दार शजर भी अमाँ में आ जाए मैं शाहज़ादा नहीं तो फ़क़ीर ही बेहतर कहीं तो ज़िक्र मिरा दास्ताँ में आ जाए मैं तेरा नाम सलीक़े से तो पुकारूँ मगर ख़ुदा-न-ख़्वास्ता लुक्नत ज़बाँ में आ जाए किसे डुबोना है और किस को पार करना है शुऊ'र इतना तो आब-ए-रवाँ में आ जाए मैं एक लम्हे को सदियों की ज़िंदगी समझूँ मिरा यक़ीं जो हिसार-ए-गुमाँ में आ जाए झुलस चुका है बहुत धूप में बदन मेरा सो उस से कहता हूँ अब साएबाँ में आ जाए मैं अपनी अक़्ल से कुछ और काम ले लूँगा कभी ये दिल भी मिरा इम्तिहाँ में आ जाए सफ़र की सारी अज़िय्यत पे ख़ाक उड़ती है भटक के कोई अगर कारवाँ में आ जाए मैं जिस को राज़ बताता हूँ अपनी ख़ल्वत के अजब नहीं कि सफ़-ए-दुश्मनाँ में आ जाए