कभी जो शब की सियाही से ना-गहाँ गुज़रे हम अहल-ए-ज़र्फ़ हर इक सोच पर गराँ गुज़रे निगाह-ओ-दिल से मिटा दें जो तिश्नगी का अज़ाब वो आबशार के धारे अभी कहाँ गुज़रे ग़म आफ़रीं था मुसलसल सुकूत-ए-शहर-ए-हबीब हम इस गली से मगर फिर भी शादमाँ गुज़रे शिकस्तगी की तिलिस्मी फ़ज़ा नई तो नहीं यहाँ तो ऐसे कई दौर इम्तिहाँ गुज़रे नज़र में शोख़ शबीहें लिए हुए है सहर अभी न कोई इधर से धुआँ धुआँ गुज़रे तमाम कोह कशाकश था मेरे सर पे 'ख़याल' अगरचे और भी दुनिया में सख़्त जाँ गुज़रे