कभी मिली है जो फ़ुर्सत तो ये हिसाब किया सवाब कितने किए कितना इर्तिकाब किया हमेशा अपने अमल का ख़ुद एहतिसाब किया ख़ुद अपने आप को ऐसे भी बे-नक़ाब किया तमाम उम्र भटकते रहे गुमानों में वो शय मिली ही नहीं जिस का इंतिख़ाब किया दराज़ कर न सके फिर भी कासा-ए-ग़ैरत तरह तरह से तबीअत ने बे-हिजाब किया कभी तो ज़ब्त ने दरिया को कर दिया सहरा कभी जुनूँ ने भी सहरा को आब आब किया अलग न हो सका दिल याद-ए-रफ़्तगाँ से कभी तिरे ख़याल से हर-चंद इज्तिनाब किया ये ज़िंदगी हमें कैसे मुआ'फ़ कर देती वो वक़्त वक़्त था हम ने जिसे ख़राब किया जवाब दे गईं सारी ज़िहानतें 'सालिम' किसी सवाल ने ता-उम्र ला-जवाब किया