कभी रक़्स-ए-शाम-ए-बहार में उसे देखते कभी ख़्वाहिशों के ग़ुबार में उसे देखते मगर एक नज्म-ए-सहर-नुमा कहीं जागता तिरे हिज्र की शब-ए-तार में उसे देखते वो था एक अक्स-ए-गुरेज़-पा सो नहीं रुका कटी उम्र दश्त ओ दयार में उसे देखते वो जो बज़्म में रहा बे-ख़बर कोई और था शब-ए-वस्ल मेरे कनार में उसे देखते जो अज़ल की लौह पे नक़्श था वही अक्स था कभी आप क़र्या-ए-दार में उसे देखते वो जो काएनात का नूर था नहीं दूर था मगर अपने क़ुर्ब-ओ-जवार में उसे देखते यही अब जो है यहाँ नग़्मा-ख़्वाँ यही ख़ुश-बयाँ किसी शाम कू-ए-निगार में उसे देखते