कभी सहर तो कभी शाम ले गया मुझ से तुम्हारा दर्द कई काम ले गया मुझ से मुझे ख़बर न हुई और ज़माना जाते हुए नज़र बचा के तिरा नाम ले गया मुझ से उसे ज़ियादा ज़रूरत थी घर बसाने की वो आ के मेरे दर-ओ-बाम ले गया मुझ से भला कहाँ कोई जुज़ इस के मिलने वाला था बस एक जुरअत-ए-नाकाम ले गया मुझ से बस एक लम्हे के सच झूट के एवज़ 'फ़रहत' तमाम उम्र का इल्ज़ाम ले गया मुझ से