कभी सर-ब-सज्दा हुआ था दिल कभी हर क़दम पे क़ियाम था कि वो रास्ता तिरे शहर का सभी रास्तों का इमाम था कभी दर्द-ए-तूल-ए-फ़िराक़ था कभी दुख कि वस्ल है मुख़्तसर रह-ए-इश्क़ में तो सुकून का कोई एक पल भी हराम था जिसे ख़ुद-सरी का ग़ुरूर था जो ख़ुद-आगही का ज़ुहूर था वही दिल गदा-ए-रह-ए-तलब तिरी इक नज़र का ग़ुलाम था न तो हम-सफ़र से उमीद थी न ही राहबर पे यक़ीं था तिरे शहर के सभी रास्तों का अजीब सा ही निज़ाम था इसी जुस्तुजू में सदा रहा कि तिरी तलब को फ़रोग़ हो मिरी ख़्वाहिशों में छुपा हुआ तिरी आरज़ू का दवाम था मुझे कुन कहा तो मैं हो गया फ़य-कुन मिरा ही कमाल था मैं असीर-ए-अह्द-ए-अलस्त हूँ कि बला मिरा ही कलाम था तिरे नाम से जो अलग हुआ तो बना 'हिदायत'-ए-बे-नवा कि अज़ल के शहर-ए-वुजूद में तिरा नाम ही मिरा नाम था