कभी सुनते हैं अक़्ल-ओ-होश की और कम भी पीते हैं कभी साक़ी की नज़रें देख कर पैहम भी पीते हैं कहाँ तुम दोस्तों के सामने भी पी नहीं सकते कहाँ हम रू-ब-रू-ए-नासेह-ए-बरहम भी पीते हैं ख़िज़ाँ की फ़स्ल हो रोज़े के अय्याम-ए-मुबारक हों तबीअ'त लहर पर आई तो बे-मौसम भी पीते हैं तवाफ़-ए-काबा बे-कैफ़िय्यत-ए-मय हो नहीं सकता मिला लेते हैं थोड़ी सी अगर ज़मज़म भी पीते हैं कहाँ की तौबा कैसा इत्तिक़ा अहद-ए-जवानी में अगर समझो तो आओ तुम भी चक्खो हम भी पीते हैं 'नुशूर' आलूदा-ए-इस्याँ सही पर कौन बाक़ी है ये बातें राज़ की हैं क़िब्ला-ए-आलम भी पीते हैं