कभी ता'मीर होती हूँ कभी मिस्मार होती हूँ कभी आसान लगती हूँ कभी दुश्वार होती हूँ मिरे हर रूप में ही दिलकशी क़ुदरत ने रखी है कभी ख़ुशबू के हाले में गुल-ए-गुलज़ार होती हूँ कभी महफ़िल में रोज़-ओ-शब हुए हैं तज़्किरे मेरे कभी बन कर ख़बर मैं ज़ीनत-ए-अख़बार होती हूँ कभी मेरे इशारों पर बदल जाती हैं तदबीरें कभी ताक़त के ऐवानों का इक हथियार होती हूँ मिरी तो उम्र गुज़री है यूँही गिर्दाब से लड़ते कभी कश्ती बचाने के लिए पतवार होती हूँ कभी मैं अपनी सोचों में मगन रहती हूँ रोज़-ओ-शब कभी मैं अपने दिलबर के लिए ग़म-ख़्वार होती हूँ 'इरम' सुन कर जिसे इस ज़िंदगी पर प्यार आता है उसी आवाज़ पर मैं रोज़ ही बेदार होती हूँ