कभी तेरे ख़त को जला दिया कभी नाम लिख के मिटा दिया ये मिरी अना का सवाल था तुझे याद कर के भुला दिया नया आरज़ू का मिज़ाज है नए दौर की हैं रिफाक़तें तिरी क़ुर्बतों का जो ज़ख़्म था तिरी दूरियों ने मिटा दिया मुझे है ख़बर तुझे इश्क़ था फ़क़त अपने अक्स-ए-जमाल से कि मैं गुम हूँ तेरे वजूद में मुझे आईना सा बना दिया मैं हिसार में तू हिसार में इसी सिलसिले को दवाम है कभी मस्लहत ने जुदा किया तो कभी ग़रज़ ने मिला दिया सभी कह रहे हैं ये बरमला जो गुज़र गया वही ख़ूब था अभी एक पल जो है आसरा उसे सब ने यूँही गँवा दिया वो शरर हो या कि चराग़ हो है तपिश मिज़ाज में ऐ 'हिजाब' कभी हर नफ़स को जला दिया कभी रौशनी को बढ़ा दिया