कभी तो दिल का कहा दिल से वो सुनेगा ही ये क़तरा संग में सूराख़ तो करेगा ही वो मेरे हाथ से बरसात के ज़माने में पकौड़े खाएगा और चाय भी पिएगा ही सुहानी शाम किसी दिल-नशीं वादी में वो दो ही साथ साथ चले चलेगा ही अभी ये सोच के मैं ज़ुल्म सहती जाती हूँ कभी तो हाथ तिरे ज़ुल्म का रुकेगा ही ये दाग़-ए-दिल नहीं जो छुप सके छुपाने से बदन का ज़ख़्म है अब ख़ून तो बहेगा ही असीर सब हैं फ़ना के हिसार में लेकिन ख़ुदा की याद से बेहतर सिला मिलेगा ही शुऊ'र से ही बशर चाँद पर भी पहुँचा है ज़माना इल्म की दौलत से तो बढ़ेगा ही कोई ग़ुरूर में एलान-ए-ख़ुद-सरी कर ले ख़ुदा के सामने आख़िर को सर झुकेगा ही 'सबीला' तेरे हक़ीक़त बयान करने से जहाँ पे राज़-ए-जुनूँ एक दिन खुलेगा ही