क़ाबिज़ रहा है दिल पे जो सुल्तान की तरह आख़िर निकल गया शह-ए-ईरान की तरह ज़ाहिर में सर्द ओ ज़र्द है काग़ान की तरह लेकिन मिज़ाज उस का है मुल्तान की तरह राज़-ओ-नियाज़ में भी अकड़-फ़ूँ नहीं गई वो ख़त भी लिख रहा है तो चालान की तरह लुक़्मा हलाल का जो मिला अहल-कार को उस ने चबा के थूक दिया पान की तरह ज़िक्र उस परी-जमाल का जब और जहाँ छिड़ा फ़ौरन रक़ीब आ गया शैतान की तरह इक लम्हा उस की दीद हुई बस की भीड़ में और फिर वो खो गया मिरे औसान की तरह मैं मुब्तला-ए-क़र्ज़ रहा चार साल तक वो सिर्फ़ चार दिन रहा मेहमान की तरह हर बात के जवाब में फ़ौरन नहीं नहीं निकला ज़बान-ए-यार से गर्दान की तरह 'शाहिद' से कह रहे हो कि रोज़े रखा करे हर माह जिस का गुज़रा है रमज़ान की तरह