क़ब्र में अब किसी का ध्यान नहीं सच है जब जी नहीं जहान नहीं बंद बुलबुल ही की ज़बान नहीं वर्ना गुल तो हिलाते कान नहीं दिल ने ख़ुद उल्फ़त-ए-कमर की है इस में कुछ मेरा दरमियान नहीं अभी क्या क्या न होगा हर्ज नसीब हम नहीं हैं कि इम्तिहान नहीं दैर क्यूँ ज़ाहिदों ने छोड़ दिया क्या बुतों में ख़ुदा की शान नहीं शम्स कैसा चमक के निकला है आज मेरा जो मेहरबान नहीं बात क्या है 'सख़ी' जो वो हम से ऐसे चुप हैं कि कुछ बयान नहीं