क़ाबू ख़िज़ाँ से ज़ोफ़ का गुलशन मैं बन गया दोश-ए-हवा पे रंग-ए-गुल-ओ-यासमन गया बरगशता-बख़्त देख कि क़ासिद सफ़र से मैं भेजा था उस के पास सो मेरे वतन गया ख़ातिर-निशाँ ऐ सैद-फ़गन होगी कब तिरी तीरों के मारे मेरा कलेजा तो छन गया यादश-ब-ख़ैर दश्त में मानिंद-ए-अंकबूत दामन के अपने तार जो ख़ारों पे तन गया मारा था किस लिबास में उर्यानी ने मुझे जिस से तह-ए-ज़मीन भी मैं बे-कफ़न गया आई अगर बहार तो अब हम को क्या सबा हम से तो आशियाँ भी गया और चमन गया सरसब्ज़ मुल्क-ए-हिन्द में ऐसा हुआ कि 'मीर' ये रेख़्ता लिखा हुआ तेरा दकन गया