क़दम उठे तो गली से गली निकलती रही नज़र दिए की तरह चौखटों पे जलती रही कुछ ऐसी तेज़ न थी उस के इंतिज़ार की आँच ये ज़िंदगी ही मिरी बर्फ़ थी पिघलती रही सरों के फूल सर-ए-नोक-ए-नेज़ा हँसते रहे ये फ़स्ल सूखी हुई टहनियों पे फलती रही हथेलियों ने बचाया बहुत चराग़ों को मगर हवा ही अजब ज़ाविए बदलती रही दयार-ए-दिल में कभी सुब्ह का गजर न बजा बस एक दर्द की शब सारी उम्र ढलती रही मैं अपने वक़्त से आगे निकल गया होता मगर ज़मीं भी मिरे साथ साथ चलती रही