क़द-ए-सनम सा अगर आफ़रीदा होना था न सर्व-ए-बाग़ को इतना कशीदा होना था हुआ है ज़ुल्फ़ से गुस्ताख़ किस क़दर शाना हमारे पास भी दस्त-ए-बुरीदा होना था न खींचना था ज़ुलेख़ा को दामन-ए-यूसुफ़ उसी का पर्दा-ए-इस्मत दरीदा होना था दिया न साथ जो सब्र-ओ-क़रार ने न दिया रवाना मुल्क-ए-अदम को जरीदा होना था मिटाए से कोई मिटता है बातिलों के हक़ कुछ इख़्तियार से क्या बरगुज़ीदा होना था न जानता था ग़ज़ब है निगह का तीर ऐ दिल तुझी को सामने आफ़त-रसीदा होना था रुलाता शाम-ओ-सहर किस तरह न ताले-ए-पस्त बुलंद सर से मिरे आब-दीदा होना था गुरेज़-ए-यार ने बर्बाद कर दिया हम को ग़ुबार-ए-राह ग़ज़ाल-ए-रमीदा होना था न आई दामन-ए-दाया में नींद ऐ 'आतिश' दरून-ए-दामन-ए-ख़ाक आर्मीदा होना था