काग़ज़ी हाथ हमें रास न आएँ शायद अब के मिट्टी से ग़ज़ल कोई उगाएँ शायद उन हसीं झील सी आँखों का फ़ुसूँ क्या कहिए शे'र पहनेंगे परिंदों की क़बाएँ शायद पहले ईसा ही को मस्लूब किया था लेकिन अब के मरियम को भी दें लोग सज़ाएँ शायद उस ने खोले हैं शब-ए-वस्ल घनेरे गेसू आज बरसेंगी धुआँ-धार घटाएँ शायद संगसार आज सर-ए-आम जो करते हैं हमें कल वही हाथ जनाज़ा भी उठाएँ शायद न कोई फूल न आँसू न लरज़ता जुगनू मेरी झोली में हैं बे-कार दुआएँ शायद 'प्रेम' क्या दौर है दिल से भी गिराँ हैं पत्थर हसरतें शीशे के घर और बनाएँ शायद