कह गया कुछ तो ज़ेर-ए-लब कोई जान देता है बे-सबब कोई जावे क़ासिद उधर तो ये कहियो राह तकता है रोज़ ओ शब कोई गो कि आँखों में अपनी आवे जान मुँह दिखाता है हम को कब कोई बन गया हूँ मैं सूरत-ए-दीवार सामने आ गया है जब कोई गरचे हम साए उस परी के रहे न मिला झाँकने का ढब कोई हद ख़ुश आया ये शेर-ए-'मीर' मुझे कर के लाया था मुंतख़ब कोई अब ख़ुदा मग़फ़िरत करे उस की 'मीर' मरहूम था अजब कोई ऐ फ़लक उस को तू ग़नीमत जान 'मुसहफ़ी' सा नहीं है अब कोई