कहा अग़्यार का हक़ में मिरे मंज़ूर मत कीजो मुझे नज़दीक से अपने कभू तू दूर मत कीजो हुए संग-ए-जफ़ा से शीशा-ए-दिल के कई टुकड़े बस अब इस से ज़ियादा और चकनाचूर मत कीजो मिरे मरहम-गुज़ार उस शोख़-ए-बे-परवा से ये कहियो कि ज़ालिम ज़ख़्म ताज़ा है उसे नासूर मत कीजो हक़ारत अपने आशिक़ की नहीं माशूक़ को भाती 'बयाँ' सई अपनी रुस्वाई में ता मक़्दूर मत कीजो कहा था सार-बाँ के कान में लैला ने आहिस्ता कि मजनूँ की ख़राबी का कहीं मज़कूर मत कीजो