कहा है किस ने कि अब तो शायद गुलाब मौसम इधर न आए भला ये मुमकिन है जाने वाला पलट के 'फ़ीरोज़' घर न आए हुआ वो आदी कुछ इस तरह से क़फ़स के मजबूर रोज़-ओ-शब का रिहा हुआ भी मगर परिंदे के देर तक बाल-ओ-पर न आए अकेलगी के अज़ाब-ए-मौसम अब अपनी हस्ती पे भोग प्यारे कि ख़ुद तुम्ही ने मुझे कहा था तिरी दुआ में असर न आए मुनाफ़िक़त के फ़रेब-सहरा में धूप ने चाट ली हैं आँखें कड़ी रुतों की मसाफ़तों में रफ़ाक़तों के शजर न आए मैं शाम-ए-शहर-ए-वफ़ा में 'फ़ीरोज़' उस की आवाज़ ढूँढता हूँ जहाँ वो मिल के बिछड़ गया था वो संग-ए-मंज़िल नज़र न आए