कहाँ हम और कहाँ अब शराब-ख़ाना-ए-इश्क़ न वो दिमाग़ न वो दिल न वो ज़माना-ए-इश्क़ हुआ है शहर-ए-ख़मोशाँ में जब गुज़र मेरा सुना किया हूँ लब-ए-गोर से फ़साना-ए-इश्क़ ख़याल-ए-रुख़ पे है मौक़ूफ़ दिल की आबादी कभी न गुल हो इलाही चराग़-ए-ख़ाना-ए-इश्क़ भरे हुए हैं हसीनान-ए-सीम-तन दिल में ख़ुदा करे कभी ख़ाली न हो ख़ज़ाना-ए-इश्क़ गई दिमाग़ में जिस के किया असीर उसे अजब कमंद है बू-ए-शराब-ख़ाना-ए-इश्क़ कहीं है दाग़ का मज़मूँ कहीं है सोज़ का ज़िक्र सुनो न तुम कि बहुत गर्म है फ़साना-ए-इश्क़ ग़लत है साहब-ए-दौलत को गर ग़नी कहिए ग़नी वो है जिसे अल्लाह दे ख़ज़ाना-ए-इश्क़ जो बहर-ए-ग़म में गिरा हाथ धो के जीने से उसी के हाथ भी आया दुर-ए-यगाना-ए-इश्क़ तमाम उम्र इसी सहरा की ख़ाक छानी है जो तुम सुनो तो सुनाऊँ कोई फ़साना-ए-इश्क़ बने हैं जब से वो यूसुफ़ हर एक गाहक है खुला हुआ है यहाँ भी दर-ए-ख़ज़ाना-ए-इश्क़ किसी पे दिल का था आना कि बे-ख़ुदी छाई समंद-ए-होश को आफ़त है ताज़ियाना-ए-इश्क़ जब उन के दिल में ये आती है कुछ सुनें नाले तो मुझ से कहते हैं छेड़ो कोई तराना-ए-इश्क़ चमक के दाग़ ये कहता है दिल की आहों से हवा से बुझ नहीं सकता चराग़-ए-ख़ाना-ए-इश्क़ ये जानिए कि लगी हाथ दौलत-ए-कौनैन मिले जो ख़िर्मन-ए-हस्ती से एक दाना-ए-इश्क़ यहाँ 'अयाज़' है आक़ा ग़ुलाम है 'महमूद' 'जलील' क्या मैं कहूँ तुम से कारख़ाना-ए-इश्क़