कहाँ ले जाएगी देखूँ ये मेरी आरज़ू मुझ को लिए फिरती है हर जानिब तुम्हारी जुस्तुजू मुझ को बर आती आरज़ू मुद्दत पे मुझ बरगश्ता-क़िस्मत की बुलाते अपनी महफ़िल में अगर तुम रू-ब-रू मुझ को मोहब्बत ऐसी शय है जिस से बाज़ आए कोई आशिक़ पसंद आती नहीं नासेह तुम्हारी गुफ़्तुगू मुझ को तड़प कर जिस्म-ए-ख़ाकी से निकल जाती ये जाँ अपनी न समझाती शब-ए-फ़ुर्क़त जो तेरी आरज़ू मुझ को मोहब्बत में किसी गुल के जला जाता है दिल अपना 'जमीला' मिस्ल-ए-शबनम हो गई रोने की ख़ू मुझ को