क़हर कैसा सुब्ह-दम बाद-ए-बहारी कर गई फूल बरसाना थे दिल पर शो'ला-बारी कर गई तिश्ना-ए-तकमील इक मुद्दत से था ज़ौक़-ए-जुनूँ काम कुछ तो दोस्तों की संग-बारी कर गई जिस क़दर झुकते गए होते गए हम सर-बुलंद रिफ़अ'तों से आश्ना ये ख़ाकसारी कर गई हम गुनहगारों को रहमत की कहाँ उम्मीद थी मुस्तहिक़ लेकिन हमारी शर्मसारी कर गई हर वरक़ दीवान-ए-दिल का नक़्श-ए-मानी है 'बहार' नोक-ए-मिज़्गाँ देखिए क्या हुस्न-कारी कर गई