कहीं भी मक़ाम-ए-सदा-ए-लब नहीं आ सका मैं तिरी सदा-ए-निगह पे कब नहीं आ सका तिरे हिज्र तेरे विसाल अपने ख़याल में किसी आइने में मैं सब का सब नहीं आ सका तिरे क़ुर्ब में मुझे मौत याद नहीं रही वो सहर हुई कि ख़याल-ए-शब नहीं आ सका जो तमाम उम्र रहा सबब की तलाश में वो तिरी निगाह में बे-सबब नहीं आ सका हुई ऐसे साया-ए-रंज में मिरी तर्बियत कभी कोई वस्वसा-ए-तरब नहीं आ सका ये मिरी मता-ए-गिराँ हवा में बिखर गई मुझे अपने सोज़-ए-निहाँ का ढब नहीं आ सका