कहीं भी शहर में कुंज-ए-अमाँ नहीं मिलता कि आज राब्ता-ए-जिस्म-ओ-जाँ नहीं मिलता ये सोचता हूँ कहाँ से हो इब्तिदा, आख़िर कि हर्फ़ कोई पस-ए-दास्ताँ नहीं मिलता समय की लहर में ग़र्क़ाब हो रहा हूँ मैं कहीं पे नाव कहीं बादबाँ नहीं मिलता तमाम उम्र की ला-हासिली अज़ाब हुई वो मिल गया है तो अपना निशाँ नहीं मिलता बता रही है बगूलों की हम-रही मुझ को पस-ए-ग़ुबार कोई कारवाँ नहीं मिलता मिरे ख़िलाफ़ शहादत है मो'तबर सब की मगर किसी से किसी का बयाँ नहीं मिलता ये कैसी साअतें सर पर हैं आज-कल 'अतहर' ज़मीं मिली है तो अब आसमाँ नहीं मिलता