कहीं हुस्न का तक़ाज़ा कहीं वक़्त के इशारे न बचा सकेंगे दामन ग़म-ए-ज़िंदगी के मारे शब-ए-ग़म की तीरगी में मिरी आह के शरारे कभी बन गए हैं आँसू कभी बन गए हैं तारे न ख़लिश रही वो मुझ में न कशिश रही वो मुझ में जिसे ज़ो'म-ए-आशिक़ी हो वही अब तुझे पुकारे जिन्हें हो सका न हासिल कभी कैफ़-ए-क़ुर्ब-ए-मंज़िल वही दो-क़दम हैं मुझ को तिरी जुस्तुजू से प्यारे मैं 'शकील' उन का हो कर भी न पा सका हूँ उन को मिरी तरह ज़िंदगी में कोई जीत कर न हारे