कहीं जंगल उगाते हैं कहीं आहू बनाते हैं मुसव्विर हैं तिरे पहलू को सद पहलू बनाते हैं भला क्या क़त्ल पर अपने रक़ीबों से गिला कि वो मिरा नाफ़ा जुदा कर के तिरी ख़ुशबू बनाते हैं तहम्मुल सीख हम से गुफ़्तुगू कर नर्म लहजे में कि सब तेरे रवय्ये ही को अपनी ख़ू बनाते हैं कहीं कोई सितारा छोड़ते हैं बे-करानी में कभी अंधेर नगरी में कोई जुगनू बनाते हैं अदू कैसे सितमगर हैं मुझे तस्ख़ीर करने को तिरी तस्वीर के ऊपर मिरे बाज़ू बनाते हैं हमें तो ख़्वाब में भी ज़ुल्फ़ सुलझाने की आदत है मगर वो लोग जो उलझे हुए गेसू बनाते हैं तिरे का'बे से कुछ ईमान वालों को ग़रज़ होगी कि हम काफ़िर तो बुत-ख़ाना भी क़िबला-रू बनाते हैं हम ऐसे कुश्तगान-ए-ख़ाक ही 'आकाश' सहरा में सबा को अपने दिल की धोंकनी से लौ बनाते हैं