कहीं ओलों की बरसातें कहीं मोती की सौग़ातें निहायत मस्लहत अंदेश हैं अब बदलियाँ उस की बिला-शुबा वही क़ातिल है अपने अहद का लेकिन शहादत कौन दे कि सामने है वर्दियाँ उस की शहीदान-ए-वफ़ा बोए गए हैं अब के मौसम में कि लाला-ज़ार हो जाएँ लहू से खेतियाँ उस की लहू आशाम दरिया इस तरह हम सुर-ख़र्रू उतरे कि अब तक हिचकियाँ लेती रही हैं नद्दियाँ उस की दमकते चाँद तारे शबनम-ओ-गुल सुब्ह का मंज़र अभी बिखरी पड़ी हैं हर तरफ़ अंगड़ाइयाँ उस की न फिर क्यूँ दर्द की लज़्ज़त मशाम-ए-जाँ में लहराए 'क़मर' जब गुदगुदाएँ ख़ुद-बख़ुद पुरवाइयाँ उस की