कहीं से साज़-ए-शिकस्ता की फिर सदा आई बहुत दिनों में इक आवाज़ आश्ना आई चली कुछ आज इस अंदाज़ से नसीम-ए-सहर कि बार बार किसी की सदा-ए-पा आई तुम्हारी तलअत-ए-ज़ेबा को कर लिया सज्दा नज़र जहाँ भी कोई शक्ल-ए-दिलरुबा आई अजीब लुत्फ़ हुआ उन की याद से महसूस कि जैसे दिल के दरीचे खुले हवा आई रह-ए-हयात में काँटे बिखेरने वाले! हयात भी तिरे दर तक बरहना-पा आई चमन से पहले तो इक सैल-ए-आतिशीं गुज़रा फिर उस के ब'अद बरसती हुई घटा आई शुरू-ए-इश्क़ में उन से ही कुछ हिजाब न था कभी कभी तो ख़ुद अपने से भी हया आई हम अपने हाल-ए-परेशाँ पे बारहा रोए और उस के ब'अद हँसी हम को बारहा आई कभी क़रीब से छेड़ा जो साज़-ए-जाँ को 'रईस' तो गोश-ए-दिल में बहुत दूर की सदा आई