कहीं सुब्ह-ओ-शाम के दरमियाँ कहीं माह-ओ-साल के दरमियाँ ये मिरे वजूद की सल्तनत है अजब ज़वाल के दरमियाँ अभी सेहन-ए-जाँ में बिछी हुई जो बहार है उसे क्या कहूँ मैं किसी इ'ताब की ज़द में हूँ तू किसी मलाल के दरमियाँ हैं किसी इशारे के मुंतज़िर कई शहसवार खड़े हुए कि हो गर्म फिर कोई मा'रका मिरे ज़ब्त-ए-हाल के दरमियाँ नहीं तर्जुमान-ए-बयाँ कोई जो है पर्दा-दार-ए-सुकूत है हैं ये दाग़ दाग़ इबारतें बड़े एहतिमाल के दरमियाँ यहाँ ज़र्रा ज़र्रा है दीदा-वर नहीं ज़र्रा भर कोई बे-ख़बर किसी कम-नज़र को पड़ी है क्या पड़े क्यूँ सवाल के दरमियाँ न रहा धुआँ न है कोई बू लो अब आ गए वो सुराग़-जू है हर इक निगाह गुरेज़-ख़ू पस-ए-इश्तिआ'ल के दरमियाँ थे जो पर-कुशा हैं ज़ुबूँ ज़ुबूँ थे जो सर-ब-कफ़ हुए सर-निगूँ कहीं खो गए दरूँ दरूँ ये किस इन्द्र-जाल के दरमियाँ लगी ज़र्ब ऐसी है बर-महल कि ये मरहला भी है जाँ-गुसिल हुए ज़ख़्म फिर से लहू लहू थे जो इंदिमाल के दरमियाँ कभी शिकवा-ज़न कभी नुक्ता-चीं कभी बाग़ियों का हिमायती ये 'ख़लिश' है कौन कहो उसे रहे ए'तिदाल के दरमियाँ