कहीं उम्मीद सी है दिल के निहाँ ख़ाने में अभी कुछ वक़्त लगेगा उसे समझाने में मौसम-ए-गुल हो कि पतझड़ हो बला से अपनी हम कि शामिल हैं न खिलने में न मुरझाने में हम से मख़्फ़ी नहीं कुछ रहगुज़र-ए-शौक़ का हाल हम ने इक उम्र गुज़ारी है हवा खाने में है यूँही घूमते रहने का मज़ा ही कुछ और ऐसी लज़्ज़त न पहुँचने में न रह जाने में नए दीवानों को देखें तो ख़ुशी होती है हम भी ऐसे ही थे जब आए थे वीराने में मौसमों का कोई महरम हो तो उस से पूछो कितने पतझड़ अभी बाक़ी हैं बहार आने में