कहना तिरे मुँह पर तो निपट बे-अदबी है ज़ाहिद जो सिफ़त तुझ में है सोज़न-ए-जलबी है इस दश्त में ऐ सैल सँभल ही के क़दम रख हर सम्त को याँ दफ़्न मरी तिश्ना-लबी है हर इक से कहा नींद में पर कोई न समझा शायद कि मिरे हाल का क़िस्सा अरबी है उज़्लत से निकल शैख़ कि तेरे लिए तयार कोई हफ़्त-गज़ी मेख़ कोई दह-वजबी है ऐ चर्ख़ न तू रोज़-ए-सियह 'मीर' पे लाना बेचारा वो इक नारा-ज़न नीम-शबी है