कहने को सब फ़साना-ए-ग़ैब-ओ-शुहूद था दर-पर्दा इस्तिआरा-ए-शौक़-ओ-नुमूद था समझा न बुल-हवस किसे कहते हैं इंतिज़ार नादाँ असीर-ए-कशमकश-ए-देर-ओ-ज़ूद था क्या आशिक़ी में हौसला-ए-मर्ग-ओ-ज़िंदगी ख़्वाब ओ ख़याल मरहला-ए-हस्त-ओ-बूद था सोचा था मय-कदा ही सही गोशा-ए-नजात देखा तो इक हुजूम-ए-रुसूम-ओ-क़यूद था जाँ शाद-काम-ए-बोसा-ए-पा-ए-सनम हुई कितना बुलंद ताला-ए-ज़ौक़-ए-सुजूद था ये इश्क़ था कि जिस ने दिया रंग-ए-शोला-ताब आलम तमाम नक़्श-ए-सुकूत-ओ-जुमूद था ऐ दोस्त अब वो दौर-ए-तअम्मुल गुज़र चुका जब दामन-ए-नज़र पे ग़ुबार-ए-हुदूद था शब हम ग़ज़ल-सरा थे 'रविश' बज़्म-ए-नाज़ में शम-ए-अदब-शनास के लब पर दुरूद था