कहने को यहाँ जीने का सामान बहुत है इक तू जो नहीं ज़िंदगी वीरान बहुत है मिलता है सर-ए-राह तो कतराता है मुझ से अब अपने किए पे वो पशेमान बहुत है चेहरे के तअस्सुर से तो लगता है कि ख़ुश है गर रूह में झाँको तो परेशान बहुत है फेंक आया था वो मुझ को किसी अंधी गुफा में मंज़िल पे मुझे पा के वो हैरान बहुत है सीता है अगर तू तुझे पाना नहीं मुश्किल तेरे लिए बस राम का इक बान बहुत है इक हर्फ़-ए-मोहब्बत ही असासा है 'ज़फ़र' का अर्ज़ां जो ज़माने में मिरी जान बहुत है