कहो न ये कि मोहब्बत है तीरगी से मुझे डरा दिया है पतंगों ने रौशनी से मुझे सफ़ीना शौक़ का अब के जो डूब कर उभरा निकाल ले गया दरिया-ए-बे-ख़ुदी से मुझे है मेरी आँख में अब तक वही सफ़र का ग़ुबार मिला जो राह में सहरा-ए-आगही से मुझे ख़िरद इन्ही से बनाती है रहबरी का मिज़ाज ये तजरबे जो मयस्सर हैं गुमरही से मुझे अभी तो पाँव से काँटे निकालता हूँ मैं अभी निकाल न गुलज़ार-ए-ज़िंदगी से मुझे ज़बान-ए-हाल से कहता है नाज़-ए-इश्वा-गरी हया छुपा न सकी चश्म-ए-मज़हरी से मुझे बराए दाद-ए-सुख़न कासा-ए-सवाल हो दिल ख़ुदा बचाए 'जमील' इस गदागरी से मुझे