कहो तुम अपनी तुम्हें क्या मिला जफ़ा कर के हमें तो दर्द की दौलत मिली वफ़ा कर के हयात तेरी है और तेरे काम आ जाए तिरी डगर पे चला हूँ ये फ़ैसला कर के उतर न आए ज़माना मुख़ालिफ़त पे कहीं कि जा रहा हूँ किसी को चराग़-पा कर के जुनूँ से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का ये नतीजा है भटक रहा हूँ ख़िरद को मैं रहनुमा कर के वजूद उन का है इक दाग़ रू-ए-हस्ती पर जो बैठ जाते हैं क़िस्मत का आसरा कर के वो आदमी है हक़ीक़त में आदमी 'क़ासिद' ख़ता पे जिस को नदामत भी हो ख़ता कर के