कहती हुई ये मुझ से हवा-ए-सहर गई दश्त-ए-तलब में शबनम-ए-एहसास मर गई रक्खा न था क़दम अभी दश्त-ए-सुकूत में आवाज़ मेरी अपने ही साए से डर गई मैं उस का नौहा बन के अँधेरे में घुल गया वो इक किरन जो मेरे लिए दर-ब-दर गई मैं लिख रहा था फूल की पत्ती पे तेरा नाम काँटे की नोक सीना-ए-गुल में उतर गई महफ़िल में रात नित-नए चेहरों के शोर में वो कौन था कि जिस से लिपटने नज़र गई जिस से थी आबरू-ए-तलातुम वो मौज भी 'ख़ालिद' कनार-ए-ख़ाक पे सर रख के मर गई