कहूँ जो कर्ब फ़क़त कर्ब-ए-ज़ात समझोगे मगर कभी तो मिरी नफ़सियात समझोगे ये उम्र जाओ भी दो चार दिन की क्या है बिसात अभी कहाँ से ग़म-ए-काएनात समझोगे मिरा वजूद सिला है मिरी शिकस्तों का बिगड़ बिगड़ के बनोगे तो बात समझोगे अभी तो जुम्बिश-ए-लब पर हज़ार पहरे हैं जो लब खुले भी तो क्या दिल की बात समझोगे इधर न आओ अब इस शहर में उजालों के वो तीरगी है कि दिन को भी रात समझोगे