क़ैद और क़ैद भी तन्हाई की शर्म रह जाए शकेबाई की सूझता क्या हमें उन आँखों से शर्त थी क़ल्ब की बीनाई की दर-ए-बुत-ख़ाना से बढ़ने ही न पाए गरचे इक उम्र जबीं-साई की क़ैस को नाक़ा-ए-लैला न मिला गो बहुत बादिया-पैमाई की हम ने हर ज़र्रे को महमिल पाया है ये क़िस्मत तिरे सहराई की वक़्फ़ है उस के लिए जान-ए-अज़ीज़ काबे के ख़ादिम ओ शैदाई की काबा ओ क़ुद्स में घर किया ये भी इक अदा है मिरे हरजाई की नज़र आया हमें हर चीज़ में तू उस पे ये धूम है यकताई की इश्क़ और जौर-ए-सितमगर का गिला हद है ऐ दिल यही रुस्वाई की इश्क़ को हम ने किया नज़्र-ए-जुनूँ उम्र भर में यही दानाई की कर गई ज़िंदा-ए-जावेद हमें तेग़-ए-क़ातिल ने मसीहाई की हो न तक़लीद दिला मक़्तल में कहीं मूसा से तमन्नाई की न सही तेग़ तजल्ली ही सही आँख झपके न तमाशाई की कल को है फिर वही ज़िंदाँ 'जौहर' ठीक किया आप से सौदाई की