क़ैद में भी है जुनूँ दस्त-ओ-गरेबाँ हम से आ के ख़ल्वत में भी मिलता है बयाबाँ हम से क़ैस सौदा-ए-ग़म-ए-गेसू-ए-लैला के लिए ले गया चंद ख़यालात-ए-परेशाँ हम से इश्क़ में इतना ज़माना हमें गुज़रा है कि लोग पूछते आते हैं इस दर्द का दरमाँ हम से कोई नाक़ूस-ओ-जरस की नहीं करता फ़रियाद हम जो नालाँ हैं तो हर शख़्स है नालाँ हम से हाल का अपने हमें इल्म नहीं उन को है राज़ रखते हैं हमारा भी वो पिन्हाँ हम से क़ैद-ए-ग़म से है रिहाई बहुत आसाँ 'नातिक़' शर्म इस की है कि वाबस्ता है ज़िंदाँ हम से