क़ैद में रक्खा गया क़तरा तो ग़लताँ हो गया नूर की नहरों को ना-पैदा कराँ होना ही था शोहरा हैकल के लिए आवाज़ा पैकर के लिए हर तवानाई को बेनाम-ओ-निशाँ होना ही था हम ने कुछ यूँ ही नहीं झेला था क़रनों का अज़ाब आख़िर उस दैर-आश्ना को मेहरबाँ होना ही था तंग जब कर दी गई हम पर ज़मीं करते भी क्या लाज़िमन हम को ज़मीं से आसमाँ होना ही था कहकशाँ की सम्त उठने थे अबद-पैमा क़दम जानिब-ए-सय्यार तय्यारा रवाँ होना ही था था क़फ़स में भी तो था फव्वारा-ए-आहंग-ओ-रंग इस परिंदे को तो जन्नत-आशियाँ होना ही था